Tuesday, November 29, 2011

सपने टूटने की चुभन..

सपने टूटने की चुभन


"तेरे जाने के बाद मैनें उस चादर को भी नहीं बदला "

बिस्तर की सलवटों को जब भी देखती हूँ 
तो मन कसमसा जाता हैं 
कराह उठता हैं 
तेरा यू चले जाना 
यू दग़ा देना 
मन पर एक बोझ -सा लद जाता हैं 
सामने लगे शीशे पर ,
जब भी अपना अक्श देखती हूँ  
तो कुछ सफ़ेद तार झिलमिलाने लगते हैं 
आँखों पर मवाद -सा छा जाता हैं 
नीली स्वप्निल आँखों में कीचड़ -सा भर जाता हैं 

" मैं कुछ मुटिया -सी गई हूँ "--सोचती हूँ 
खूबसूरती फुर र र र से उड़ गई हैं 
जवानी दबे पाँव कहीं चली गई हैं 
आँखों पर झुरियो की हलकी -सी परत का जमना 
उफ़ ! क्या बुढ़ापे ने दस्तक दे दी हैं ?

अपने मौजूदा वजूद को क्यों नकारने लगी हूँ ..?
बालो की सफेदी को क्यों छिपाने लगी हूँ ?
चुप -के से शीशे को निकालकर ,
उन चंद बालो को तोड़ने लगती हूँ ?
ऊहूँ !"मुए, कहीं ओर जाओ ..यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं "


जाने क्यों गुस्सा आता हैं जब कोई 'आंटी' कहता हैं ?
मैं ओर आंटी ! कभी नहीं ?
क्यों खुद को आज भी अल्हड समझती हूँ ?
अपने ही दायरे में कैद हूँ --???
अपने ही सपनो में विचरण कर  रहीं हूँ ?
मैं खुद , कब इस जीवन -चक्र का हिस्सा बन गई -पता ही नहीं चला !

सपने टूटने का दर्द थोडा तो होता हैं न ????


  

Wednesday, November 16, 2011

उल्फत

उल्फत 



तुझसे दूर रहना मेरी आदत नहीं 
पास रहू ये मेरी किस्मत नहीं 



दूर होते हो तो  बीमार -सी  हो जाती हूँ  ?
पास रहते हो तो सरशार -सी हो जाती हूँ ? 
मांगना  मेरी फितरत में नहीं हैं लेकिन --
जाने क्यों तेरी तलबगार -सी हो जाती हूँ  ?




उसकी सरगोशियाँ, बेताबियाँ,जलते जज्बे,
याद आते हैं तो गुलनार -सी हो जाती हूँ  ?
सोचती हूँ, कभी रूठ ही जाऊ मैं उससे---
        सामने उसके मैं अक्सर लाचार -सी हो जाती हूँ ?



जब तसव्वुर में महक जाती हैं खुशबु उसकी 
फूल बन जाती हूँ गुलजार -सी हो जाती हूँ ?